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कविता

रेत की माँ

श्रीप्रकाश शुक्ल


नदी के बीच में पहुँचकर
एक द्वीप पर खड़ा होकर
कभी मैं नदी को देख रहा था
तो कभी रेत को

नदी चुपचाप सोई हुई थी
और रेत हूँमच हूँमच कर दूध पी रही थी

रेत लगातार मोटी होती जा रही थी
जबकि नदी दुबली
और दुबली होती नदी
यह देखकर प्रसन्न थी कि लोग उसे माँ कहते हैं।
   ('रेत में आकृतियाँ' संग्रह से)

 


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